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बैठे-बैठे सोच रही हूं

बैठे-बैठे सोच रही हूं दीवारों से पीठ लगा के
खुद को मैं खोज रही हूं, सीने पे खंजर चला के

उम्मीदों का सावन कल तक, बरसा था दो आंखों से
आज सब कुछ सूख गया है, रेतों में उम्मीद जगा के

आने दो इन पंछियों को, आंगन में मैं अकेली हूं
मेरी तरह मुसाफिर हैं ये, जीते नहीं हैं शहर बसा के

अपनी दुनिया वो नहीं जिसमें दिल का नाम नहीं
कैसे जीएंगे हम भला फिर किसी से देह लगा के

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