जो सुलगता नहीं हो वो चिरागां कैसा
जो उजड़ता नहीं हो वो बहारां कैसा
मैंने पत्थर को भी शीशे का टुकड़ा समझा
बिना दिल के इन निगाहों का नजारा कैसा
जिंदगी थी तो तन्हा थे, ये भीड़ न थी
मेरी मैयत पे रिश्तों का ये सहारा कैसा
कितनी प्यासी थी ये लहरें रेतों के लिए
बिना सहरा के समंदर का गुजारा कैसा
जो उजड़ता नहीं हो वो बहारां कैसा
मैंने पत्थर को भी शीशे का टुकड़ा समझा
बिना दिल के इन निगाहों का नजारा कैसा
जिंदगी थी तो तन्हा थे, ये भीड़ न थी
मेरी मैयत पे रिश्तों का ये सहारा कैसा
कितनी प्यासी थी ये लहरें रेतों के लिए
बिना सहरा के समंदर का गुजारा कैसा